
राइट टू प्रॉपर्टी (Right to Property) भारत के संविधान का एक अहम हिस्सा रहा है, लेकिन 1978 में 44वें संशोधन के बाद इसे मौलिक अधिकारों की सूची से हटा दिया गया। अब यह अनुच्छेद 300A के तहत एक संवैधानिक अधिकार (Constitutional Right) है। हाल ही में, एक अहम मामले में हाई कोर्ट ने इस अधिकार की पुष्टि करते हुए सरकार को निर्देश दिया है कि वह बिना उचित प्रक्रिया के किसी नागरिक की संपत्ति को अधिग्रहित न करे।
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फैसले की पृष्ठभूमि और संवैधानिक बदलाव
भारतीय संविधान में शुरुआत में संपत्ति का अधिकार अनुच्छेद 19(1)(f) और अनुच्छेद 31 के तहत मौलिक अधिकार था। लेकिन 44वें संविधान संशोधन के ज़रिए इसे हटाकर अनुच्छेद 300A में शामिल किया गया, जिसमें कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से केवल “कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया” के तहत ही वंचित किया जा सकता है। इसका अर्थ है कि अब यह अधिकार सर्वोच्च नहीं है, लेकिन फिर भी राज्य इस पर मनमानी नहीं कर सकता।
हाई कोर्ट का निर्देश और सरकार को चेतावनी
हाल ही में एक मामले में हाई कोर्ट ने सरकार को फटकार लगाते हुए स्पष्ट किया कि यदि किसी नागरिक की संपत्ति ली जाती है, तो मुआवजा अनिवार्य है और अधिग्रहण पूरी कानूनी प्रक्रिया के अंतर्गत होना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि संपत्ति का अधिकार भले ही अब मौलिक न हो, लेकिन यह एक मजबूत संवैधानिक सुरक्षा है। अदालत ने यह भी कहा कि यदि सरकार ऐसा करती है तो यह संविधान के उल्लंघन के बराबर होगा और उसे जवाबदेह ठहराया जा सकता है।
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मुआवजा देना क्यों ज़रूरी है
अदालतों का यह रुख इस बात की ओर संकेत करता है कि मुआवजा केवल औपचारिकता नहीं है, बल्कि नागरिक के सम्मान और अधिकार की सुरक्षा का आधार है। भूमि अधिग्रहण के मामलों में उचित मुआवजा न देना, प्रशासनिक लापरवाही और असंवेदनशीलता को दर्शाता है। इस तरह की घटनाएं लोगों में राज्य के प्रति अविश्वास पैदा कर सकती हैं।
मानवाधिकार के रूप में संपत्ति का अधिकार
संपत्ति का अधिकार न केवल संवैधानिक अधिकार है, बल्कि यह वैश्विक स्तर पर भी एक मानवाधिकार माना जाता है। यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स (UDHR) के अनुच्छेद 17 के तहत, हर व्यक्ति को संपत्ति रखने और उससे वंचित न किए जाने का अधिकार है। भारत में भी इस सिद्धांत को मान्यता दी गई है। सुप्रीम कोर्ट पहले ही कह चुका है कि संपत्ति का अधिकार भारतीयों के लिए एक “मानवाधिकार” के रूप में स्वीकार्य होना चाहिए।
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न्यायिक संरक्षण की आवश्यकता
इस अधिकार की सीमाएं निश्चित हैं, लेकिन इसके उल्लंघन के विरुद्ध नागरिकों को न्याय की शरण लेने का अधिकार है। हालांकि यह अब आर्टिकल 32 के तहत सीधे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती, लेकिन हाई कोर्ट में अनुच्छेद 226 के तहत रिट दायर की जा सकती है। इस कानूनी रास्ते ने इस अधिकार को प्रभावी बनाए रखा है और नागरिकों को एक मंच उपलब्ध कराया है, जहां वे अपनी संपत्ति की रक्षा के लिए लड़ सकते हैं।